मेरे घर के अन्दर जो रहता है आईने में
उसने मेरा परीचय पूछा
हो कौन तुम , कहा को जाओगे
कहाँ तुम्हारी मंजिल है ?
क्या कभी लौट के फिर तुम आवोगे ?
सुबह का बुझता दीया बोलू उसे
या बोलू मुठी से फिसलता रेत
है बहुत ही मुशकिल देना उसे अपना परीचय
जो मेरे घर के अन्दर आईने में , हँसता हुआ मुझ जैसा कोई रहता है
नहीं देखा है मैंने उसका चेहरा कभी
गम से लदे , आंसू से छुपे हुए
न जाने कैसे खुश रहता है वो
सोचता हूँ पूछ लू पहले उसका परीचय
जो मेरे घर के अन्दर आईने में बैठा , मुझपे तानें मारता रहता है
क्या हैं मेरी मंजिल , मुझे खुद नहीं पता है शायद
सागर बन ने की तमन्ना तो थी
कही नदी बनकर सागर में न सीमट जाना परे
शायद उसे पता हो मंजिल मेरी
जो मेरे घर के अन्दर आईने में बैठा है , जिसकी कोई भी मंजिल नहीं
मंजिल तो पता चल गयी
रास्तों को ढूँढना बाकि है
शायद हो मुस्किल ये सफ़र क्योंकी नहीं है वो साथ मेरे
जो मेरे घर के अन्दर आईने में हँसता हुआ मुझ जैसा रहता है
तो क्या हुआ की मिले रोरे , पत्थर और मुश्कीलाते रास्तों में
लो मंजिल को मैंने पा लिया है अब
जल्दी जल्दी लौटना है घर को
कर रहा होगा वो मेरा इंतज़ार
जो मेरे घर के अन्दर आईने में मुझ जैसा कोई रहता है
लम्हों में और बरसो में तो होता है यूँ फर्क बहुत
बरसो की दूरी कभी लम्हों सी हो जाती है
लम्हों की बात भी जैसे बरसो सी हो जाती है
लम्हों की बात लग रही है, जब मिलूँगा मैं उस से
जो मेरे घर के अन्दर आईने में मुझ जैसा कोई रहता था
कोई और दिखा घर के आईने में मुझे
जहा मुझ जैसा कोई पर हँसता हुआ रहता था
मैंने पुछा उस से
हो कौन तुम , कहा को जाओगे
कहाँ तुम्हारी मंजिल है ?
क्या कभी लौट के फिर तुम आवोगे ?
वो उदास सा चेहरा जिसे मैंन नहीं जानता बोल यूँ ही
सुबह का बुझता दीया समझो मुझे
या समझो मुठी से फिसलता रेत
है बहुत ही मुशकिल देना मुझे मेरा परीचय।।।।।।।
उसने मेरा परीचय पूछा
हो कौन तुम , कहा को जाओगे
कहाँ तुम्हारी मंजिल है ?
क्या कभी लौट के फिर तुम आवोगे ?
सुबह का बुझता दीया बोलू उसे
या बोलू मुठी से फिसलता रेत
है बहुत ही मुशकिल देना उसे अपना परीचय
जो मेरे घर के अन्दर आईने में , हँसता हुआ मुझ जैसा कोई रहता है
नहीं देखा है मैंने उसका चेहरा कभी
गम से लदे , आंसू से छुपे हुए
न जाने कैसे खुश रहता है वो
सोचता हूँ पूछ लू पहले उसका परीचय
जो मेरे घर के अन्दर आईने में बैठा , मुझपे तानें मारता रहता है
क्या हैं मेरी मंजिल , मुझे खुद नहीं पता है शायद
सागर बन ने की तमन्ना तो थी
कही नदी बनकर सागर में न सीमट जाना परे
शायद उसे पता हो मंजिल मेरी
जो मेरे घर के अन्दर आईने में बैठा है , जिसकी कोई भी मंजिल नहीं
मंजिल तो पता चल गयी
रास्तों को ढूँढना बाकि है
शायद हो मुस्किल ये सफ़र क्योंकी नहीं है वो साथ मेरे
जो मेरे घर के अन्दर आईने में हँसता हुआ मुझ जैसा रहता है
तो क्या हुआ की मिले रोरे , पत्थर और मुश्कीलाते रास्तों में
लो मंजिल को मैंने पा लिया है अब
जल्दी जल्दी लौटना है घर को
कर रहा होगा वो मेरा इंतज़ार
जो मेरे घर के अन्दर आईने में मुझ जैसा कोई रहता है
लम्हों में और बरसो में तो होता है यूँ फर्क बहुत
बरसो की दूरी कभी लम्हों सी हो जाती है
लम्हों की बात भी जैसे बरसो सी हो जाती है
लम्हों की बात लग रही है, जब मिलूँगा मैं उस से
जो मेरे घर के अन्दर आईने में मुझ जैसा कोई रहता था
कोई और दिखा घर के आईने में मुझे
जहा मुझ जैसा कोई पर हँसता हुआ रहता था
मैंने पुछा उस से
हो कौन तुम , कहा को जाओगे
कहाँ तुम्हारी मंजिल है ?
क्या कभी लौट के फिर तुम आवोगे ?
वो उदास सा चेहरा जिसे मैंन नहीं जानता बोल यूँ ही
सुबह का बुझता दीया समझो मुझे
या समझो मुठी से फिसलता रेत
है बहुत ही मुशकिल देना मुझे मेरा परीचय।।।।।।।
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