उस चेहरे को देख कुछ यूँ लगा
कोई लम्हा याद आया हो जैसे
हाथों में कुछ खिलौने , बदन पे अध् फटे से कपडे
चेहरा जैसे धुप को ललकार रही थी
और आँखे गाड़ी के भीतर बैठे मेम साहब को देख रहे थे
होठ सूखे हुए पर दिल में एक उम्मीद
कोई खिलौना अगर बीक जाता तो पेट की आग को बुझा लेती
बड़ी करुणा भरी थी उसकी आँखे
पर आँखों से क्या होता है
उसके ऊपर माथे की लकीरों को कौन बदल पाया है
उसके हर नजर में एक प्यास थी
और उस चौराहे के लोगों की नजरों में भी कोई प्यास था
समय के साथ बढ़ता बदन , और छोटे होते हुए कपडे
चाह के भी खुद को नहीं छुपा पा रही थी वो
और हमारे समाज के ताज कहलाने वाले अपनी किस्मत पे इठला रहे थे
सबकी नजरों के घाव को झेल रही थी वो
और दिल जैसे सोच रहा था , की किसको दोश दे
उस खुदा को जिसने ऐसा किस्मत लिखा
या उस कलम को जिससे खुदा ने उसका किस्मत लिखा था कभी
बरी मुश्कील से नजरो को छुपा रही थी वो
बरी मुश्कील से दामन बचा रही थी वो
नहीं चाहती थी की खड़ी रहे उस मोड़ पे मगर
मजबूरीयों का सीतम उठा रही थी वो
चाह के भी तब दे न पाया था एक सिक्का मैंने
पेट थे मेरे भरे , और उसको रखा तब भूखा मैंने
दुनिया को शायद पहली बार मैंने समझा था उस दिन
पैसे की कीमत को पहली बार था पहचाना मैंने
गाड़ियों के भीर में वो आज भी कही खड़ी होगी
लोगों की नजरे उसपे आज भी कही गडी होंगी
आज भी कही धुप में वो , पसीने सुख रही होगी
आज भी किसी मोड़ पे वो अपना दामन बचा रही होगी
आज भी उसको देख के कोई दिल रोया होगा
आज भी उसको देख के कोई रात भर ना सोया होगा .......
कोई लम्हा याद आया हो जैसे
हाथों में कुछ खिलौने , बदन पे अध् फटे से कपडे
चेहरा जैसे धुप को ललकार रही थी
और आँखे गाड़ी के भीतर बैठे मेम साहब को देख रहे थे
होठ सूखे हुए पर दिल में एक उम्मीद
कोई खिलौना अगर बीक जाता तो पेट की आग को बुझा लेती
बड़ी करुणा भरी थी उसकी आँखे
पर आँखों से क्या होता है
उसके ऊपर माथे की लकीरों को कौन बदल पाया है
उसके हर नजर में एक प्यास थी
और उस चौराहे के लोगों की नजरों में भी कोई प्यास था
समय के साथ बढ़ता बदन , और छोटे होते हुए कपडे
चाह के भी खुद को नहीं छुपा पा रही थी वो
और हमारे समाज के ताज कहलाने वाले अपनी किस्मत पे इठला रहे थे
सबकी नजरों के घाव को झेल रही थी वो
और दिल जैसे सोच रहा था , की किसको दोश दे
उस खुदा को जिसने ऐसा किस्मत लिखा
या उस कलम को जिससे खुदा ने उसका किस्मत लिखा था कभी
बरी मुश्कील से नजरो को छुपा रही थी वो
बरी मुश्कील से दामन बचा रही थी वो
नहीं चाहती थी की खड़ी रहे उस मोड़ पे मगर
मजबूरीयों का सीतम उठा रही थी वो
चाह के भी तब दे न पाया था एक सिक्का मैंने
पेट थे मेरे भरे , और उसको रखा तब भूखा मैंने
दुनिया को शायद पहली बार मैंने समझा था उस दिन
पैसे की कीमत को पहली बार था पहचाना मैंने
गाड़ियों के भीर में वो आज भी कही खड़ी होगी
लोगों की नजरे उसपे आज भी कही गडी होंगी
आज भी कही धुप में वो , पसीने सुख रही होगी
आज भी किसी मोड़ पे वो अपना दामन बचा रही होगी
आज भी उसको देख के कोई दिल रोया होगा
आज भी उसको देख के कोई रात भर ना सोया होगा .......