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आत्मदाह

मैंने कई बार देखा है उसे ठिठुरती रात में छत पे बैठ के सितारों को निहारते हुए, ना जाने क्या बातें करता है वो उन सितारों से शायद कुछ समझाना चाहता है उन्हें, या फिर करना चाहता है कोई ऐसी बात जो बोल नहीं पता कभी. न जाने कौन सा दर्द लिए जिए जा रहा है वो ,की  सारी मधुशाला पी के भी उसकी प्यास नहीं बुझती । अपने ही धून में रहता है वो , कभी किसी से बात नहीं करता , कैसे जी सकता है कोई इन्शान ऐसे.…रात के अँधेरे में कई बार मैंने महसूस की है उसकी शिशकिया, सुन के ऐसा लगता है जैसे उसकी आत्मा किसी बोझ से दबी हुए है, एक दो बार राह चलते मिला हूँ  उससे उसकी आँखे बहुत डरावनी है बिलकुल खामोश , जैसे लाखों तूफ़ान अपने अंदर दबाये हुए हो. पूरा दिन घर में बंद रहने से उसका शरीर पीला पर गया है, बहुत कम  निकलता है वो अपने घर से, कभी किसी को नहीं देखा उसके घर में आते-जाते , शायद कोई दोस्त नहीं है उसका इस शहर में, बिलकुल अकेले जिए जा रहा है वो अभागा इन्शान।  बस एक-दो बातें है जो हर दिन देखने को मिल जाती है, आधी रात को कही से लरखाराते हुए आना,रात में सितारों को देखना और फिर वो दर्द भरी शिशकारिया।
ऐसे तो मैं संडे को बहुत लेट से उठता हूँ , पर आज उठना पर, न जाने कौन बहुत देर से कॉल बेल्ल बजाये जा रहा है।  गेट खोल के देखा तो वही अभागा इन्शान था, माफ़ी मांगते हुए उसने किसी मंदिर का पता पूछा और चला गया, कुछ अजीब सा लगा. मैंने भी अपनी चाय पी और सोचा चलो मंदिर हो के आता हू इसी बहाने अगर वो मिला तो कुछ बातें भी हो जाएँगी और उसको जानने का मौका भी मिलेगा, इतने दिनों बाद बात की है शायद दोस्ती करना चाहता होगा। मंदिर के पास में एक छोटी सी नदी है , लोग कहते है की वो गंगा का हिस्सा है, मंदिर पहुंच के देखा तो वो नदी में खरा हो के कुछ मंत्रो का उच्चारण कर रहा था, मैंने सोचा की चलो अच्छा है शायद ये अपनी ज़िंदगी की नई शुरुवात करने वाला है,
शायद उस दिन अमावश था.,,,,रात बिलकुल काली और डरावनी थी.… लैंप पोस्ट की रौशनी में मुझे फिर से वो छत पे दिखाई दिया लेकिन आज वो ज्यादा देर तक रुका नहीं वह और जल्दी ही चला गया.…रात बहुत ही डरावनी प्रतीत हो रही थी और नींद मेरी आँखों से कोशो दूर थी.… पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था की मुझे उससे जाकर मिलना चाहिए ……पता था था मुझे की ये सही समय नहीं है किसी के घर जाने का फिर मैं खुद को रोक नहीं पाया और उससे मिलने चला गया उसके घर..... जाने किसका इंतज़ार था उसे घर के दरवाजे खुले रखे थे उसने और सारे लाइट्स ऑफ थे, लाइट्स ओन कर के देखा तो वो अपनी हॉल के सोफे पे लेता पर था, चारो तरफ जैसे खून ही खून था, उसने अपनी नब्जे काट ली थी, और रुक्सत ले लिया था इस दुनिया से। बाद में पुलिस आई  उसके  घर की तलाशी ली गए लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिससे उसकी पहचान होती, बस एक डायरी मिला जिसमे उसने कैद की थी कुछ चंद यादें ,एक लावारिश मौत मिली थी उसको, इससे बढ़कर और बुरी किस्मत क्या होगी जब किसी की लाश पे लिपट के रोने वाला भी कोई न हो.....उसकी  डायरी के कुछ आखिरी पन्ने पढ़े थे मैंने, हर एक लाइन उसके दर्द को बयां कर रही थी........ कुछ ऐसा लिखा था उसने
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क्या कभी देखा है तुमने किसी को बार-बार  मरते हुए, मैं मर रहा हूँ  हर पल,हर दिन, हर लम्हा, कई बार तो अपना श्राद्ध भी किया है मैंने ..........तुमसे दूर जाने का दर्द और जीने नहीं देता जान, शायद यही सजा है मुझे जैसे अभागे की.…आज फिर से कर रहा हु अपनी आत्मा का दहन, फिर से मर रहा हु मैं और कर रहा हु अपना श्राद्ध,……तेरा प्यार, तेरा दर्द, तेरा गम ओह........ बहुत दर्द है जान.…ज़ब ना रहू तो एक दीप जल देना उस पत्थर के आगे जहा माँ की ममता मिलती थी मुझे , दो आँशु बहा देना और वापस चली जाना......उतना बुरा भी मैं नहीं था जितना तुमने सोचा था.…अब वक़्त हो चला है अलविदा करने का.………ख़याल रखना।
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अगले दिन वापस मदिर गया मैं.....शायद शांति चाहिए थी मेरे मन को.…मंदिर में वही मंत्र सुनाई दिया जो कल वो अभागा इन्शान पढ़ रहा था नदी में खरा होकर। पास जाकर देखा तो कोई पंडित थे, जो किसी का श्राद्ध कर रहे थे ठीक उसी जगह खरे होकर जहा कल वो खरा था।
अभी समझ में आया की वो कल अपना श्राद्ध कर रहा था, उसे पता था की कोई नहीं करने वाला उसका श्राद्ध, कोई नहीं आने वाला उससे लिपट के रोने , कोई नहीं है किसे फर्क परता है उसके होने या ना होने से.………
अब रात को कोई छत पे नहीं दीखता ना ही वो दर्द भरी शिश्कियां सुनाई देती है.…फ़िर भी हर रात याद आता है वो अभागा इन्शान जिसने बिना किसी को कुछ कहे अलविदा कर दिया सबको, जिसने कर दिया अपना आत्मदाह .......... और याद अाता है उसके वो  मंत्र जो पढ़े थे उसने आखिरी बार !!!!!!!
"नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः"

कुछ तुम्हारे लिए !!!!!

ज़िंदगी जब खेलने लगती है जिस्म के इस खिलौने से , जब हर एक सांस लेना भारी परने लगता है इंसान को ऐसे में दर्द का मारा कवी मैखाने नहीं जाये तोऔर  कहा जाये।  थके हुए दिमाग और सरे हुए जिस्म का बोझ उठाना कितना भारी होता है कोई उस कवि से पूछे जिसने दर्द के कहर से अपनी सबसे प्यारी चीज, अपनी कलम को फेंक दिया है काफी पहले। फिर भी लिखना चाहता है अपनी दास्ताँ और बनाता है किसी कब्रिस्तान की हड्डी को अपना कलम और काट लेता है अपनी नब्ज़ों को, लिखने बैठता है अपनी दास्तान। लाखों शिकायते लिखी जाती है अपने खुदा के लिए, गलियां लिखी जाती है दुनिया के रस्मों रिवाजो के नाम........लिखी जाती है हर उस जुर्म की दास्तान जो उसने किया है अपने महबूब के ऊपर जाने-अनजाने में। एक - दो नब्ज़ उभरते है उसके महबूब के नाम जहा लगाई जाती है गुहार अपने माफ़ी की.…खून जब काम परने लगता है जिस्म की और पलके बंद होने लगती है तो लिखता है आखिरी लाइन अपने खूबसूरत साथी के नाम और बंद कर लेता है अपने नजरें......
Love you too
Khyal Rakhna!!!!!