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वक्त

वक्त काटे नहीं कटता है अभी
जैसे बंद घरी की सुईयों में फंसा है कही
सुबह से शाम और शाम से रात के इंतज़ार में
आँखे बोझल बोझल सी लगने लगती है
साँसे चलती तो हैं , अपनी ही रफ्तार से
ना जाने क्यूँ घुंटन सा लगने लगता है अब
जिंदगी की उलझनों को सुलझाने की कोसीस में
खुद से ही उलझ के रुक सा गया हूँ
किसी उजरे हुए कब्रीस्तान में
की जहाँ ना कोई सुनने वाला है मुझे
और ना किसी को सुना सकता हूँ अपने मन की आवाज
माँ तू पास होती तो थोडा शुकून जरुर मीलता
शायद आँखों को थोड़ी नींद भी नसीब हो गयी होती
जीधर भी देखता हूँ , कोई अपना नहीं दीखता मुझको
सारे चेहरे , जो कल तक जाने पहचाने से लगते थे
आज ना जाने क्यूँ हर चेहरे में कुछ तलाश कर रही है मेरी आँखे
वक़्त बिलकुल कटे नहीं कटता है अभी
जैसे बंद घरी की सुइयों में फंसा है कही........